हड्डियों का ढाँचा-सा दिखने वाला
'हरिया'
जानता है कि वह / रुग्ण नहीं है
उसे / श्रम और सन्ताप ने तोड़ा है
निस्तेज निरुपाय-सा पड़ा है
'हरखुआ'
जानता है कि वह / अक्षम अपंग नहीं है
वह / बर्बरता और बेबसी का
शिकार है
आँखों में आँसुओं के / समुद्र को छिपाए
सहमी-सिमटी सी—
'कृष्णा'
जानती है कि उसने
अपने जिस्म का सौदा नहीं किया
उसे / ज़ालिम दरिन्दों ने लूटा है
जेल के सीखचों के पीछे
छटपटाता, कसमसाता—
'मंगल'
जानता है कि वह / चोर-डकैत या हत्यारा नहीं है
उसे / झूठे केस में फँसाया गया है
यही था उसका अपराध कि
उसने उठायी थी
ज़ुल्म और शोषण के ख़िलाफ़ / आवाज़
नयी नहीं हैं ये घटनाएँ
सदियों से यही होता आया है
हरिया, हरखू और मंगल के साथ
नोचते रहे हैं
कृष्णा के ज़िन्दा जिस्म को
भेड़िए, हैवान!
दिन की दोपहरी में
नृशंसता के आग में
झोंके जा रहे दलितों और उनके
मासूम बीवी-बच्चों के
चीत्कार से
गाँव की भरी पंचायत के सामने
जबरन नग्न की जा रही युवतियों के—
बेबस विलाप से
काँपती रही हैं दिशाएँ
सिहरता रहा है इतिहास
पर—
हाय रे भारत महान
नहीं फटता किसी का कलेजा
नहीं दुखती किसी की आत्मा—
इन घटनाओं से
नहीं होता कोई विद्रोह
नहीं उठता यहाँ / न्याय, समता और भ्रातृत्व का
तूफ़ान
लेकिन आज
मंगल की छटपटाहट और आक्रोश
देने लगे हैं आभास—
कि आम्बेडकर की सन्तान अब और नहीं सहेगी—
ज़ुल्म और अत्याचार
नहीं रहेगी मौन
कृष्णा के आँसू / हरखू की बेबसी
हरिया के सन्ताप का लेगी हिसाब
तोड़कर अन्याय और शोषण की / जंज़ीरों को
रचेगी नया इतिहास!