प्रभु-मन्दिर की नीरवता में
कर विलीन अपने मन-प्राण
धर्म-धरीण हिन्दुओं को है
धरते देखा मैंने ध्यान।
देखा है करते मसजिद में
मुल्ला को भी दीर्घ पुकार
पड़ी कान में गिरिजाघर के
मधुर-प्रार्थना की स्वर-धार।
पर वर्षा ऋतु की उष्मा में
होकर श्रम से क्लांत महान
हल जोतते किसान छेड़ता
है जब अपनी लम्बी तान।
सुन तब उसे वाटिका से निज
करता हूँ उर-बीच विचार
खेतों में यों आर्तस्वर से
यह किसको है रहा पुकार।
या कि शिािर की शीत-निशा में
मींज रहा हो जब वह धान
सुनता हूँ तब शैया से मैं
उसका करुणा-पूरित गान।
भर जाता है जी, नेत्रों से
निद्रा करती शीघ्र प्रयाण
हृदय सोचता-जलते किसके
विरहानल से इसके प्राण।
-श्री शारदा, 19 अप्रेल, 1920