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आरुषि के लिए / रंजना जायसवाल

आरूषि
तुम बार-बार आँखों में आँसू भरे
क्यों खड़ी हो जाती हो
मेरे सामने आकर
मैं कर ही क्या सकती हूँ मेरी बच्ची
जब नहीं कर पा रहे हैं कुछ
वे बड़े लोग
जिनपर ज़िम्मेदारी है
देश की हर बेटी की
वे सिर्फ विज्ञापनों में प्रचार कर सकते हैं
कि कितना सम्मान है बेटियों का
बढ़ रही हैं कितनी तेजी से आगे वे
छू रही हैं आसमान की ऊँचाइयाँ कितनी
क्या फ़र्क पड़ता है उन्हें कि कितनी बेटियाँ
आज भी जन्म लेने के अधिकार से वंचित हैं
कितनी जीने के
कितनी मार दी जाती हैं जीते-जी
कितनी शोषित होती हैं अपनों से
उन्होंने रट लिए हैं बस
कुछ सफल स्त्रियों के नाम
और बार-बार दुहराते हैं
मेरी बच्ची
तुम्हारी आँखों के हजारों प्रश्न
हर लड़की के प्रश्न हैं
कितनों को मिलता है जवाब
रखता ही कौन है
उन पर हुए जुल्मों का हिसाब
तुम जी नहीं पाई पूरा जीवन
क्या फर्क पड़ता है उन्हें
ये तो होता रहा है हमेशा
और हमेशा से यह भी
कि जोड़ दिया जाए लड़की की
ऐसी मृत्यु को चरित्र से
हत्या के बाद चरित्र की हत्या
वह भी बार-बार शायद
यही है लड़की होने का अपराध
अगर मिले ईश्वर तो पूछना
कि क्यों थमा दी गयी थी
कंस के हाथों में
कृष्ण के बदले लड़की
क्यों परित्याग हुआ सीता का
बनी अहल्या ही पत्थर क्यों
वह भी तब,जब वह धरती पर था
अब नहीं है वह यहाँ
है मगर अनगिनत भक्त उसके
फिर क्यों मारी जा रही हैं आरूषियाँ?