Last modified on 27 अक्टूबर 2014, at 14:02

आरोहित मन / अमृता भारती

पुरातन समय में
कभी
मेरे मन का फूल
ऊपर चला गया था
बढ़ते पानी के साथ बढ़ता हुआ —

एक समर्पित आरोहण ।

फिर किसी नए क्षण में
पानी नीचे उतर गया —

पर
मेरे मन का फूल
अब भी ऊपर है

पँखुड़ियों के बीच
वह जीवित है
अपने बीज के अन्दर
मिट्टी की परतें हटाता
पंक में धँसी अपनी जड़ों को काटता

मेरे मन का फूल
जीवित है —

धरती नहीं
अब आकाश सरोवर है ।