आवत-जात पनहियाँ टूटी,
पाँवों आए छाले!
वृथा गए दिन बरस महीने,
मिली न मनसबदारी,
रिझा न पाए ठाकुर को हम,
कुल की कानि बिसारी।
संस्कृति की सूनी मंडी में
घुस आए हैं लाले।
पुरस्कार ले गए मझोले,
छुटभैये बन बैठे,
ऐरा-गेरा हुए मुसाहिब,
फिरते ऐंठे-ऐंठे।
सिंहासन के आसपास हैं
ये जीजा वो साले।
सदगति अगर सीकरी होती,
कूकर भी तर जाते।
धूनी तपते राम हमारे,
साखी सबद न गाते।
उनकी गंग-जमुन से बेहतर
अपने नद्दी-नाले।