यों तो बहुत संसार ने रौंदा मुझे, तोड़ा मुझे
फिर भी कहीं कुछ लोग हैं जो चाहते थोड़ा मुझे।
चाहे उन्हें मैंने कभी देखा न हो, जाना न हो
जलसे सभा की भीड़ में तत्काल पहचाना न हो
लेकिन मुन्हें लगता रहा हर रात के सुनसान में
कुछ लोग हैं जागे हुए मेरे हितों के ध्यान में।
मुझ से न उनको काम कुछ उनसे न मुझको काम कुछ
उन से न जाने कौन से सम्बन्ध ने जोड़ा मुझे।
चाहे बहुत ज़्यादा न हों, निरुपाय तो बिल्कुल नहीं
साधन न उनके पास हों, असहाय तो बिल्कुल नहीं
उनके लिए भी ज़िन्दगी खोई हुई पहचान है
जीना बहुत दुश्वार है, मरना बड़ा आसान है।
शायद उन्हें भी टूटने की यातना का ज्ञान है
वे दर्द से थर्रा उठे जब जब पड़ा कोड़ा मुझे।
ये चाहते हैं मैं कभी घुटने कहीं टेकूँ नहीं
चांदीमढ़ी मीनार को नज़रें उठा देखूं नहीं
मैं कर सकूँगा यह, न जाने क्यों उन्हें विश्वास है
जो पास मेरे भी नहीं,वह आग उनके पास है
उस छोर से भी दूर से आवाज़ वे देते रहे
जिस छोर के।