मैं यहां किसलिए लाया गया हूं-
सिर से पैर तक बन्दी
एक अंधेरे, बदबूदार घोल में
कि सांस लेना तक मुश्किल...
नहीं, नहीं-
मैं अभी मरना नहीं चाहता!
बाहर ये किसकी आवाजें हैं
कौन चीख-चीख कर
पीट रहा है दरवाजों को
खोलो! खोलो!
-ये आवाजें किसकी हैं?
कौन है यह अयाचित मेहमान-
क्या भविष्य...?
नहीं...नहीं, मैं अभी मरना नहीं चाहता
उससे कहो कि वह नक्शा
अभी अधूरा है
जिस पर आंकना चाहता था मैं
कभी जीता-जागता सूर्य-पुरुष
या कमजकम कुछ मद्विम उजाले
कुछ छोटे-छोटे सूर्यमुखी अंधेरे के...
आह! सबसे छुपकर
भागकर मैं यहां आ बैठा हूं
एक अंधेरी गुमसुम
गुफानुमा कोठरी में
अभी मैं सामना नहीं कर पाऊंगा
हरी आंखों वाले उस वनैले जन्तु का
अभी भीतर से बहुत हल्का
बहुत कमजोर हूं
पर यह क्या?
आवाजें तेज, तेजतर हुई जाती हैं
गैंडा...गैंडा!...जंगली भैंसा...
नहीं, नहीं यह तो वही है सींगदार
आदमीनुमा जीव...
तब से जानता हूं इसे
जब से होश संभाला...
दरवाजे पर ठोकरें
एक के बार एक आघात भयंकर-
आह! दरवाजा टूटने वाला है।
और अगले ही पल
मेरे हाथों से छूटकर
धूल में जा पड़ेगा
युद्ध का नक्शा...
युद्ध जो कभी लड़ा ही नहीं गया।
आह! आज जाना कि पिछले मार तमाम बरसों से मुझे
सिर्फ मुझे ही जला कर राख कर रही थी
वह आग-
आग जो पूरा संसार रच सकती थी
और मैं जा रहा हूं
सिर झुकाए/पराजित दर्प की तरह
बिना कोई जलती लकीर, बिना कोई खराश छोड़े
वक्त की छाती पर!