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आवाज-दो / कमलेश्वर साहू


सर्दी के मौसम की एक दोपहरी
जबकि धूप तब रेशमी थी
थी नटखट गुनगुनी मुलायम
एक कांपती सी आवाज मुझे चौकाती है
मेरे फोन पर
सुखद आश्चर्य से भर जाता हूं मैं-
वह मेरी कल्पनाओं की आवाज थी
मेरे देखे हुए सपनों की आवाज
बहुत पहले कहीं खो गई आवाज थी वह
जिसके साथ जीने की
इच्छा पल रही थी मेरे मन में
उस आवाज से बहुत दूर था मैं
मगर वह मेरे इतने पास थी
कि उसकी गर्म सांसें
गिर रही थीं मेरे गाल पर !