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आवारा पूँजी / राजेन्द्र गौतम

दिल्ली के धुर दक्षिण में
अब वामपंथ के डेरे ।

क्रान्ति-ध्वजा फहराती थी
जिनके जलयानों पर
कृपा-दृष्टि उनकी है अब
निर्दय तूफ़ानों पर
जिन पर चाबुक लहराते थे
अब उनके ही चेरे

कल तक लाल क़िताबें थे
दाबे जो बगलों में
मार्क्स जुगाली करते हैं
अब डिक् के बंगलों में
सत्ता के गलियारों में ही
लगते उनके फेरे ।

खुला ‘गेट’ पच्छिमी हवा अब
आँधी बन कर उतरी
उनकी खल-खल हँसी गूँजती
इनकी उतरी चुनरी
पूँजी तक आवारा हो जब
कौन मूल्य तब घेरे ।