गर्म सांसों में भोजन, की भाप सूंघने चलें
आवो दलित बस्तियों में, आज घूमने चलें
गिद्ध जिनकी अस्मिता पर तैरते रहे फिर
उन सड़े मांस खाने वालों से पूंछने चलें
जिनकी व्यथा पे, महाकाव्य तो लिखा गया
किताबों की राख का, इतिहास देखने चलें
मुंडेर पर कौआ, मुर्गे की तरह बोलता है
कोयल की कूंक में दुखी, ममता बूझने चलें
जहाँ कजरी सी आंखंे बादल में दौड़ती रही
काजल उनकी यौवन का, सौगात बूझने चलें
‘बाग़ी’ सूखे पौधे सा कभी हुआ बेजान नहीं
पराये बसन्त हसी पर, क्यों आज रीझने चले?