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आशीष / सुनीता जैन

आज जब बैठ गई हूँ,
चलना छोड़ दिया,
पहले पहल समझ आया
तुम चल-चल आये
कितना?

कितनी दूर-समय के,
खो गया तेज अंधड़ में,
वह छोटा पल-
सपना

मुझे नहीं पता है
क्या बाकी, देकर जो,
निर्मल कर लूँगी
यह रक्त-सना, कर
अपना

किन्तु यदि आशीषों का
कुछ भी फल होता है
तुम रहना, तुम रहना-
तुम रहना, तुम,
रहना!