दूर तक फैली धरती
बहुत आशाओं से
आसमान को
पुकारती है-
‘आओ, हम
मिलकर एक हो जाएं।’
परन्तु
आसमान जानता है
यह बात
कि
धरती और उसका
कभी मेल नहीं हो सकता
चाहता तो आसमान भी है
कि
वह धरती से मिलकर
एक हो जाए
परन्तु
वह जानता है अपनी मजबूरी
और-
जिस समय
उसकी यह मजबूरी
बढ़ जाती है
बहुत सा बरस कर
वह रो देता है
और
कर लेता है
अपने मन को हल्का।
धरती भी उस समय
समझने लगती है
आसमान की मजबूरी
और-
आसमान के बरसने से
नम होकर
बहुत सारी हरियाली फैलाकर
जताने लगती है
आसमान का आभार।