अौर फिर यह भी कि व्यक्ति को मारने में ज़्यादा झंझट है समूह को
मारने में कोई कठिनाई नहीं कोई संशय नहीं कोई चमक भी नहीं
अपराध को छिपाने की ज़रूरत भी क्या जब वह अपराध हो भी न, उसे तो
अापके कहे बिना पत्रकार ही छिपा लेते हैं सरे अाम टी० वी० नट जाता है
बुद्धिजीवी उचाट मन से सुनता है राजनेता हाँ हूँ करता है
सुनवाई के दौरान मुन्सिफ़ बार-बार उबासी लेता है
हिंसा इतनी अासान हो गई है जितना कि हिंसा का ख़याल
बेख़याली में भी लोगों को मार डाला जा सकता है
जानवर को हम खाने के लिए मारते हैं सोच समझकर काटते हैं
मनुष्य को बस मारने के लिए
एक धब्बा जो जल्द ही फीका पड़ कर उड़ जाता है एक परछाईं
जो ग़ायब हो जाती है सरदी की धूप की तरह