आसों के सूरज हों
या फिर परसाल के,
धरती की रोटी पर
करछुल के दाल के।
अरहर या चने रहें,
किरन अंगुलियों पोहचों
कुहनी तक सने रहे;
दिन गरीब हैं शिकार दोरंगी चाल के।
नदी ताल घाटी के,
पूर्वज हैं मेरे ये
धरती के, माटी के;
रोली, चंदन, अक्षत सूर्य तिलक भाल के।
साँझ हैं सकारे हैं,
अंधों की लाठी ये-
जन्म के सहारे हैं।
जुग-जुग सदियों से हरकारे हैं काल के।
आने पर राम-राम,
जाते सूरज को भी-
करते हैं जन सलाम
लैम्प पोस्ट से अब भी गलियों के, चाल के।
आसों के सूरज हों
या फिर परसाल के-
धरती की रोटी पर
करछुल ये दाल के।