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आह का असर / पूजानन्द नेमा

होटलों या बंगलों में उठते
हर बेश कीमती कोर में
एक खेतिहर का पसीना होता है
और जूठन जितने लिटर बनती है
उतने ही पेट
गाँवों में भूखे सो जाते हैं ।
एक कमरा जागीरदार का वातानुकूलित होता है
तो दस चूलहे गरीबों के
ठंडे पड़ जाते हैं ।

गर्म एक नेता की कुरसी होती है
तो बनिस्बत उस के निर्वाचन-क्षेत्र की
सारी जनता के भाग फूट जाते हैं
और पाँच वर्ष तक
घर की कड़ाही ठंडी रहती है ।

हर टूरिस्ट के आने से
एक वेश्या खुश हो जाती है
और शराब के हर घूँट में
किसी कंगाल बच्चे की माँ का
स्तन-कलश चोरी चला जाता है ।

वैभव के
हर ठहाके पर
किसी झोंपड़ी में व्यथा के आँसू बह जाते हैं
और इन कराहों से कतराने वालों पर
फिर भी दिन ओराने तक
कोई आह असर न कर पाती है ।