आ जाना प्रिय आ जाना!
अपनी एक हँसी में मेरे आँसू लाख डुबा जाना!
हा हृत्तन्त्री का तार-तार, पीड़ा से झंकृत बार-बार-
कोमल निज नीहार-स्पर्श से उस की तड़प सुला जाना।
फैला वन में घन-अन्धकार, भूला मैं जाता पथ-प्रकार-
जीवन के उलझे बीहड़ में दीपक एक जला जाना।
सुख-दिन में होगी लोक-लाज, निशि में अवगुंठन कौन काज?
मेरी पीड़ा के घूँघट में अपना रूप दिखा जाना।
दिनकर-ज्वाला को दूँ प्रतीति? जग-जग, जल-जल काटी निशीथ!
ऊषा से पहले ही आ कर जीवन-दीप बुझा जाना।
प्रिय आ जाना!
मुलतान जेल, 7 दिसम्बर, 1933