आ रही है दूर की बढ़ती हुई पदचाप
ताल देता है हृदय
बढ़ रहे हैं दल उमड़ते हाथ में झंडे उठाए
वे क़दम, इनसान कंधे से चला कंधा मिलाए
रक्त आँसू की नदी में और कब तक वह नहाए
पैर, गिरते शत्रु उर पर, वज्र की है थाप
मुसकराता है उदय
गिरि, नदी, नद पार करती आ रही ललकार बढ़ती
छिन्न-भिन्न समाज में नव सभ्यता की मूर्ति गढ़ती
दूर आगामी जनों के ले मंगल पाठ पढ़ती
सत्ब्ध महलों में लगाती है मरण की छाप
द्वार पर आई विजय
दूर ती अट्टालिकाएँ लड़खड़ा कर लो गईं सो
किंतु जो आई धमक उस के यहाँ के कंप देखो
मुँह अँधेरे दौड़ते है कुछ इधर को कुछ उधर को
दौड़ यह केवल बढ़ाएगी अधिक उत्ताप
क्रांति क्या जाने विनय
(रचना-काल - 12-11-48)