मौन के धीरज, उठो भैये,
घूरते हो क्या दरारों को ।
परिधि बाहों की थकी होगी
बाँधना क्या खेल है बादल ।
स्वप्न,सच के सत्य का भ्रम है
टूटना क्यों रहा नाहक खल ।
इंगितों की कौन्ध धोखा है
समझ, ज़ज़्बे के इशारों को ।
हरित वर्षावन तुम्हीं में हैं
प्यास उनमें छोड़ दो चरने ।
कहाँ घाटोंघाट फिरते हो
इस विजन की रिक्तियाँ भरने ।
सोंप महते लक्ष्य की डोली
चेतना के सुधि कहारों को ।
बड़ा दुखदारिद्र से जीवट
यही ले जाता हमें उस ओर ।
यही थामे है हमें कसकर
यही थामे है सृजन की डोर ।
पंक से गतिमान को खींचो
त्राण दो मन के ग़ुबारों को ।
घूरते हो क्या दरारों को ।
रचनाकाल : 23 फ़रवरी 1971