स्त्रियाँ अतृप्त इच्छाओं की देह होती हैं।
बहुत-सी चीजें जो वह करना चाहती हैं, कहना चाहती हैं...
कह नहीं पाती हैं, कर नहीं पाती हैं।
बहुत-सी इच्छाएँ उनके अंदर जन्म लेती हैं, जीती हैं और फिर मर जाती हैं।
स्त्रियाँ स्वयं में इच्छाओं का पूरा जीवन चक्र लिए घूमती हैं।
उन मरी हुई इच्छाओं के बोझ से फिर एक दिन स्त्री ही मर जाती है।
और उसका पति या पुत्र या उसके साथ-साथ उसके इच्छाओं की भी अंत्येष्टि करता है।
स्त्रियाँ और इच्छाएँ फिर जन्म लेती हैं अपनी अंत्येष्टि के लिए.।
इस अपराध का जिम्मेदार मैं हूँ, तुम हो... हम सब हैं।
यह अपराध चलता आ रहा है, चलता रहेगा...
तब तक, जब तक एक वह परिवेश नहीं बन जाता
जहाँ स्त्रियों की इच्छाओं का सम्मान हो...
जहाँ स्त्रियाँ अपनी तृप्त इच्छाओं का तर्पण कर सकें।