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इच्छावृक्ष रहे फूला / कुमार रवींद्र

कहते, सखी
प्रीति-गाथा हैं
ये सुहाग के चिह्न हमारे सीने पर
 
नेह-नखत ये तुमने आँके
माथे के सिंदूर -
होंठ की लाली से
फूल झरे हैं हम दोनों पर
हरसिंगार की
नई-नवेली डाली से
 
इच्छावृक्ष
रहे फूला यह
साँसों में नित अमृत-रस बरसे झरझर
 
पाँव तुम्हारा छुआ अचानक
पेर हमारा है
अशोक का वृक्ष हुआ
बोल रहा है मंत्र छोह के
रह-रह, सजनी
भीतर बैठा हुआ सुआ
 
हँसी तुम्हारी
भरी जादुई
हुआ सुहागिल पल-भर में ही पूरा घर
 
तुम आईं
तो पता चला
आकाशकुसुम कैसा होता है
उषा-सुन्दरी की
लाली को
सूरज रोज़ कहाँ बोता है
 
हुआ बावरा
चित्त हमारा
देख तुम्हारी आँख-लिखे कनखी-अक्षर