कहते, सखी
प्रीति-गाथा हैं
ये सुहाग के चिह्न हमारे सीने पर
नेह-नखत ये तुमने आँके
माथे के सिंदूर -
होंठ की लाली से
फूल झरे हैं हम दोनों पर
हरसिंगार की
नई-नवेली डाली से
इच्छावृक्ष
रहे फूला यह
साँसों में नित अमृत-रस बरसे झरझर
पाँव तुम्हारा छुआ अचानक
पेर हमारा है
अशोक का वृक्ष हुआ
बोल रहा है मंत्र छोह के
रह-रह, सजनी
भीतर बैठा हुआ सुआ
हँसी तुम्हारी
भरी जादुई
हुआ सुहागिल पल-भर में ही पूरा घर
तुम आईं
तो पता चला
आकाशकुसुम कैसा होता है
उषा-सुन्दरी की
लाली को
सूरज रोज़ कहाँ बोता है
हुआ बावरा
चित्त हमारा
देख तुम्हारी आँख-लिखे कनखी-अक्षर