Last modified on 18 दिसम्बर 2020, at 00:07

इच्छा मृत्यु / आरती 'लोकेश'

कनाडा में फ़ोन से
आज शाम पाया
पिता की मृत्यु का
दुखद समाचार
गतमाह ही तो
वृद्ध पिता से मिला
कुछ दिन सेवा-टहल कर
वापिस सँभाला था
छूटा कारोबार
अपना व्यापार।

आवश्यकता एक
सीधी उड़ान में
टोरोंटो से लुधियाना
सीट के व्यवधान में
लगता था यूँ कि
माँगी गई है सीट
भिक्षा के नाम में
कनाडा के राजदूत की
प्रधानमंत्री की कुर्सी
दी कैसे जाती
बिना किसी वोट के
प्रसिद्धि के नोट के।

वे सँभालते होंगे
मृत काया को
बर्फ़ के ढेर में
उसके पहुँचने तक
राह देखने के फेर में
तड़पाता था दृश्य
रुके रहे होंगे
सब रिश्तेदार
लाड़ बहुत जिसपर
सबसे अधिक प्यार
पिता के शव के
अंतिम दर्शन को
आएगा अवश्य।

कहाँ से ताकत लाऊँ
कौन से शब्द जुटाऊँ
वहाँ तीन भाइयों को
पत्थर हुई माँ को
कैसे यह सुना दूँ
कैसे यह बता दूँ
तन से यहाँ हूँ
मन से वहाँ हूँ
मेरे मन के साथ ही
मुझको मान लेना वहीं
भेज दूँगा खर्च जो
मेरे हिस्से की बही।

एक तिपाई जो दिखी
चाय की केतली तले
खुद बहलाने को
विचार आए भले
तीन पाये बहुत रहे
निर्जीव तल के लिए
तीन कंधे कम नहीं
अर्थी-बल के लिए।

समय ने पलटा खाया
इतिहास ने खुद दोहराया
इकलौता सुत अब
चला गया विदेश में
सेवानिवृत्त वह पिता
लौट आया स्वदेश में
सुंदर एक घर में
ग्लानि मिटाने को
देशप्रेम निभाने को
अपनी मिट्टी के लिए
अपनी भूमि पाने को
जर्जर कृशकाय ले
पलंग से जकड़ा हुआ
इंतज़ार करता है
बेटे के हाथों ही
हो दाह संस्कार
अंतिम चाह रचता है।

गिनती की साँसें
देख परिवार ने
पिता के इस हाल की
पुत्र को दी खबर
कहीं मुँद जाएँ आँखें
बेटा घबराया
अगली ही उड़ान से
पितृ भूमि पर आया
गिन-गिनकर साथ अपने
तेरह दिन वह ले लाया
चौदहवें दिन की छुट्टी
न मिल सकी थी दफ़्तर में भी कुछ
फ़ाइलें अटकी पड़ी थीं।

बेटे को देखकर
चहक उठी थीं
साँसों की तितलियाँ
चमक उठी थीं
आँखों की पुतलियाँ
समझदार पिता ने
भावनाओं के तंतुओं से
बुन निज कफ़न को
चाहत की सूखी लकड़ियों से
सजाकर अर्थी
लिटा दिया तन को
ठूँस अपने नथुनों में
झलक के स्पर्श को
स्वाभिमान के हिम से
ढाँपकर बदन को
तैयार कर लिया था
बेकल मन को।

प्राणों का संचार
श्वास का निखार
दर्द का परिहार
उसे देख उस पल हुआ
मेरे फिर जी उठने से
निष्फल सेवा-टहल से
तेरह दिन का ट्रिप
बर्बाद न हो जाए
मौत के मातम को
पुन: न चक्कर लगाए
पुत्र के पग धरते ही
कक्ष में भरते ही
मूँद लीं सदा को
अपनी पथराई आँखें
पखेरु ने त्याग दीं
प्राणों की पाँखें फलीभूत अब हुआ उसे
जिसका न कोई भान
प्राप्य कई जनम गए
इच्छा मृत्यु का वरदान।