एक काँटा भी
ठीक से था
जमा नहीं
पसली में
कमजोर मछली
जाल में आ फँसी
और हो गयी मंडी की
फिर कौन देखे
देह की भूख
और तृष्णा के सम्मुख
मन के भीतर
रचे-पगे उसके
महके संसार को
शिकारी को
कुल दिखे
एक जून का गोश्त
एक काँटा भी
ठीक से था
जमा नहीं
पसली में
कमजोर मछली
जाल में आ फँसी
और हो गयी मंडी की
फिर कौन देखे
देह की भूख
और तृष्णा के सम्मुख
मन के भीतर
रचे-पगे उसके
महके संसार को
शिकारी को
कुल दिखे
एक जून का गोश्त