इतना औसत समय
इतनी गहरी व्यथा
इतना विचलित मन
गाफ़िल अपने ही शोर में
कोई रह-रहकर पुकार उठता
जगाता ख़ौफ़नाक हसरतों को
पीछे मुड़कर देखने पर
कोई कहीं भी तो नहीं
सधती नहीं यह भाषा
इतना भरा-भरा मन
इतने गुज़र गए लोग ।
रचनाकाल : 1992
इतना औसत समय
इतनी गहरी व्यथा
इतना विचलित मन
गाफ़िल अपने ही शोर में
कोई रह-रहकर पुकार उठता
जगाता ख़ौफ़नाक हसरतों को
पीछे मुड़कर देखने पर
कोई कहीं भी तो नहीं
सधती नहीं यह भाषा
इतना भरा-भरा मन
इतने गुज़र गए लोग ।
रचनाकाल : 1992