Last modified on 17 जुलाई 2015, at 17:20

इतना न बरसना / पूजा कनुप्रिया

सुनो बादल !
अबके बरस इतना न बरसना
कि डूब जाएँ गाँव
गल के बह जाएँ
मिट्टी के घरोंदे
नन्हों के घोंसले
 
वहाँ न बरसना
जहाँ लबालब नदियाँ हों
सीमाओं तक भरे समुद्र आतुर हों
तुम्हें रिझाकर दो बूँद तुमसे पाकर
तूफ़ान उगलने और निगल जाने को
असंख्य निर्दोष जीवन

खुले आसमान से बरसते तुम
क्या समझोगे
भीषण बाढ़ में
अपने बच्चे के छूटते हाथों की विवशता
असहाय चीख़ों की पुकार

क्या तुम इतने निर्दयी हो
कि तुम्हें दिखाई नहीं देते
निर्दोष अबोध शिशु
जिनकी लाशों के टुकड़े भी नहीं मिलते
पत्थरों से टकराकर बिखर जाते कपाल
खिलौनों की तरह टूट जाते अंग

कैसे देख पाते हो तुम
इतनी वीभत्सता इतना रक्त इतनी लाशें
और सब थम जाने के बाद
हँसती हुई मौत के बीच
अपने अपनों को खोजते
बचे-खुचे वो जीवन
जो अब जीना नहीं चाहते
जीवित होने के बाद भी

सुनो बादल !
अबके बरस
तुम बरसना वहाँ
जहाँ प्यास बिखरी पड़ी है
तड़प रहे हैं जीवन एक बूँद जल को
वहीँ भरना नदियाँ
कि वहाँ भी बोए जा सके
कुछ टुकड़े हरियाली के
कुछ खेत जीवन के ।