Last modified on 18 अप्रैल 2022, at 00:20

इतना सरल नहीं / प्रभात पटेल पथिक

इतना सरल नहीं सरिता का सागर से मिल पाना,
जाने कितने जलबन्धों से होकर जाना पड़ता है!

ये जलबन्ध किसी तीजे के लाभ हेतु हैं निर्मित,
जिससे हम-तुम प्रिये पूर्णतः, प्रथम दिवस से वंचित,
राह हमारी रोक खड़े है, मध्य हमारे द्वय के!
तुम अथाह हो, महाहृदय हो, समझो भाव हृदय के!
कितनी ऊँचाई से गिरकर ठोकर खाना पड़ता है!
इतना सरल नहीं

उनसे पूछो कभी कहानी सूख चुकी जो नदियाँ!
कैसे बिता रही होंगी वो, इक-इक दिन की सदियाँ!
कभी नहीं मिल पाई जो, जीवित रहते सागर से-
कभी बैठ तुम सुनो व्यथाएँ, विरहिन-दुःख-गागर से!
कैसे सूख-सूख कर इकदिन मर जाना पड़ता है!
इतना सरल नहीं ।

जन्म नहीं ले पाती कितनी प्रिये! नित्य सरिताएँ!
लिखने बैठूँ तो अशेष लिख जाएगीं कविताएँ।
कुछ तो यौवन क्या है? ये भी जान नहीं पाती हैं!
अपने-अपने राम-लखन को स्मृत कर मर जाती हैं।
कुछ को वेश्यालय कुछ को न्यायालय जाना पड़ता है।

इतना सरल नहीं सरिता का सागर से मिल पाना,
जाने कितने जलबन्धों से होकर जाना पड़ता है!