इतने काल से मैं जीवन की उस मधुर पूर्ति की खोज करता रहा हूँ- जीवन का सौन्दर्य, कविता, प्रेम...और अब मैंने उसे पा लिया है।
यह एक मृदुल, मधुर, स्निग्ध शीतलता की तरह मुझ में व्याप्त हो गयी है।
किन्तु इस व्यापक शान्तिपूर्ण एकरूपता में मुझे उस वस्तु की कमी का अनुभव हो रहा है जिसने मेरी खोज को दिव्य बना दिया था- एक ही वस्तु-अप्राप्ति की पीड़ा!
दिल्ली जेल, 7 जनवरी, 1933