Last modified on 4 मई 2017, at 16:09

इतने स्पर्श मत दो / महेश सन्तोषी

तुम मुझे इतने स्पर्श मत दो कि
मेरे मन प्राण तुमसे अनछुए ही रह जाएँ,
तुम मुझे बाँहों में भरे रहो और तुम्हारे लिए
मेरी सारी प्यासें भी मर जाएँ!

तुम्हारे शरीर से गुँथी हुई भी, मैं तुम्हें सम्पूर्ण, ढँूढ़ती रही हूँ,
ढूँढती रही हूँ मैं तुम्हारा वजूद, तुम्हारा यथार्थ, ढूँढती रही हँू,
कहाँ खोज रहे हो तुम मेरी आँखों में तृप्ति की परछाइयाँ?
मैं तो तुम्हारे लिए पूरी आत्मा का ही दर्पण लिए खड़ी हूँ,
तुम मुझे अपनी बाँहों में इतना भी मत बाँधो,
कि मेरे सारे आकाश तुमसे बँध कर रह जाएँ!
अभी जीवन में और भी क्षितिज हैं तुम्हारे आगे,
मेरे आगे भी हैं समय की, समाज की, सीमाएँ!

हमारी ज़िन्दगी में सिर्फ राते ही नहीं हैं,
सुबह भी हैं, दोपहरियाँ भी हैं,
बहुत दूर हैं अभी हमारे सपनों के स्वर्ग,
मंजिलों से अभी दूरियाँ ही दूरियाँ हैं,
चल सके तो हम साथ-साथ,
चलते रहेंगे उम्र के अस्ताचल तक,
पर अभी हमारे सामने रोशनियों से भरी
एक पूरी की पूरी दुनिया है,
हो सके तो ऐसी रोशनियाँ दो,
जो उम्र की सरहदों तक मेरे संग जाएँ!

तुम्हारी आँखों में बहुत से सूरज भी हैं,
बाँटों तो हम भी अपनी बाँहें फैलाएँ!