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इतर / प्रतिमा त्रिपाठी

वो कौन सा इतर था
जो लगाया करते थे तुम ?
जब मेरे घर आया करते थे तुम !
तुम्हारे आगे-आगे चलती थी सबा
ले के खुशबू तुम्हारी ..
पास से गुज़रती थी इतराते हुए !
मदहोशी में गिर जातीं थीं पलकें
साँसे ..महक-महक जातीं थीं !
वो कौन सा इतर था
जो लगाया करते थे तुम ?
वो मसनद, तुम्हारी बाहों के दरमियाँ सिमटा
तुम्हारी खुशबू का लुत्फ़ लेता हुआ
मुझे जलाता था, कई बार मैंने उसे तुम्हारे जाते ही धुना !
कई बार मैंने उसे बड़े प्यार से गुना !
तुम्हारे जाते ही कई बार मैं कर देती थी
बंद सारे दरवाजे और खिड़कियां
सुराखों में भर देती थी नर्म कपड़े !
हवा सोचती थी ये उसको कैद करने की साज़िश है
मगर वो साजिश न थी .. वो तुम्हारी खुशबू से
तर-बतर रहने की जी-तोड़ कोशिश हुआ करती थी !
वो कौन सा इतर था ..जो
लगाया करते थे तुम ?
वो जगह जहाँ बैठते थे तुम ..
उसी जगह फिर गुज़रे ज़माने ..
उसी जगह मैंने जाने कितने ही
फूलों की कतारें रखी .. फिर भी
तुम सी खुशबू कभी नहीं आई !
वो .. कौन सा इतर था .. जो ..?
साँसों में अब भी बसा है
कतरा उसी खुशबू का
कभी वक़्त मेहरबाँ होता है..
कभी सबा मुझपे खुश होती है ..
तो तुम्हारी खुशबू से तर इक तार
साँस की झनक जाती है .. फिर
अगले ही पल टूट जाती है !
जब तुम मेरे घर आया करते थे ..
वो कौन सा इतर था
जो लगाया करते थे तुम ?