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इतिहास के पन्नों से / साबिर गूदर

उस नगरी की तलाश है
फिर मुझ को
जहाँ लोगो में
बैर और भेद-भाव की दीवारें
कभी खड़ी तो न थीं
अमन ओर शान्ति थी जहाँ।
मज़हब और धरम के नाम से
खुन की होली कभी खेली न जाती थी
देर-ओ-हरम पाक था,
एहलेसियात के मक्र-ओ-फरेब से
दुख-दर्द में किसी के भी
शरीक-ए-गम था हर कोई
जहाँ सब इन्सान थे
हैवान न था कोई
महफूज थी इज्ज़त-ओ-आबरू जहाँ
माँओं, बेटियों और बहनों की।
जहाँ
आबोहवा ज़हर से धूली न थी
शोर-शराबा न था
अंधेरी रातों में खौफ न था
चैन की नींद सो सकता था हर कोई
खेतों-खलिहानों में हरियाली थी
मवेशी और जानवर मोटे-तगड़े थे
सेहतमन्द था हर छोटा-बड़ा
हाँ, उस नगरी में प्यार ही प्यार था
बड़ के दरखतों तले प्यार था
दुकानों की छतों तले प्यार था।
बैठकों, मदरसों में प्यार था।
कहावतों, लोक-गीतों और कहानियों की
एक खुबसुरत नगरी थी वो
उसी नगरी की तलाश है मुझे
दफन है जहाँ मेरे आबा-ओ-अज़दाद
जो सुकुुतेशाम में बैठे
कभी कहानियाँ कहा करते थे
वो कहानियाँ जिन्हें
मैं-तुम और हम भूल चुके हैं !