अल्ग़रज़ इन्क़लाब हूँ साहिब।
मैं ख़ुद अपना जवाब हूँ साहिब॥
अपनी ही आग में जो जलता रहा,
मैं वही आफ़ताब हूँ साहिब॥
बारिशे अश्क थम गई कब की,
अब सरापा सराब हूँ साहिब॥
जिसकी ताबीर जुस्तजू है फ़क़त,
मैं वह मुफ़लिस का ख्व़ाब हूँ साहिब॥
जिसकी क़ीमत लगानी मुश्किल है,
वो पुरानी शराब हूँ साहिब॥
ज़र्द चेहरे की सिलवटें पढ़िये,
ज़िन्दगी की किताब हूँ साहिब॥