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इन्तज़ार / ज्ञानेन्द्रपति

(कलकत्ता / कर्जन पार्क / दिन के चार)

घुटने मोड़ कर बैठी हुई यह लड़की
शाम के इन्तज़ार में है
धुँधलके के इन्तज़ार में

दिन उतर आया है उसके घुटनों तक

घुटने मोड़ कर बैठी हुई यह लड़की
दिन के अपने पैरों तले आ जाने के इन्तज़ार में है
अन्धेरे के इन्तज़ार में

तब अपने केशों पर फिराएगी वह हाथ
और बदल जाएगा उसका भेस
उसके सपाट चेहरे पर जल उठेंगी उसकी आँखें
आ जाएगी उनमें वह चमक जो केवल
बुरी स्त्रियों की आँखों में होती है
लालसा और घृणा से भर देने वाली चमक

आहिस्ता चलती हुई
अपने शिकार की तलाश में निकलेगी इस मैदान में

और एक बार फिर
शिकार की तलाश में घूमते
किसी लोलुप व्याघ्र का शिकार होगी
अपने विलाप को मुस्कराहट में बदलती हुई ।