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इन्द्रधनु कँपने लगा / बुद्धिनाथ मिश्र

एक प्रतिमा के क्षणिक संसर्ग से
आज मेरा मन स्वयं देवल बना ।
मैं अचानक रंक से राजा हुआ
छत्र-चामर जब कोई आँचल बना ।

मैं अजानी प्यास मरुथल की लिए
हाँफता पहुँचा नदी के द्वार पर
रक्तचन्दन की छुअन अंकित हुई
तलहथी की छाप-सी दीवार पर ।
तुम बनी मेरे अधर की बाँसुरी
मैं तुम्हारे नैन का काजल बना ।

यह तुम्हारा रूप-जिसकी आब से
घाटियों में फूल बिजली के खिले
इन्द्रधनु कँपने लगा कन्दील-सा
जब कभी ये होठ सावन के हिले ।
खिलखिलाहट-सी लिपट एकान्त में
चाँदनी देती मुझे पागल बना ।

तुम मिले जबसे, नशीले दिन हुए
नीड़ में खग-से सपन रहने लगे
मैं तुम्हें देखा किया अपलक-नयन
देवता मुझको सभी कहने लगे ।
जब कभी मैं धूप में जलने लगा
कोई साया प्यार का, बादल बना ।

मैं अचानक रंक से राजा हुआ
छत्र-चामर जब कोई आँचल बना ।