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इन्द्रिया वैरी / शब्द प्रकाश / धरनीदास

नयन-स्वाद कारने पतंग अंग भंग होत, श्रवन-स्वाद कारने मृगा को खाल खींचते।
नासिकोके स्वाद भँवर मकसी झाँकाय जात, जीम-स्वाद कारने जो मीन नहि वाँचते।
इन्द्रियके स्वाद सो गयन्द को गिराय देत, हो रहे अचेत सो नचाये नाच नाचते।
धरनी कही पुकारि जो करी कृपा मुरारि, धनि जिव सोइ यहि वैरिनते वाँचते॥32॥