मैं यह खूब समझती हूँ, दोस्त
बंद मुट्ठियों में भविष्य नहीं खुलता
फिर भी भला लगता है
यह पूछना हर पल
तुम्हारे हाथों में क्या है
एक तुम ही तो हो
जो मुट्ठी भर खालीपन को
आकाश कह सकते हो
चिन्दी-चिन्दी
सुख की कतरनें
बटोर लाए थे तुम
किसी तिब्बतन की आस्था से
जोड़कर उन्हें
टाँग दिए हैं मैंने
बंदनवार
पहाड़ों के आर-पार
ऊँची टेकरी पर चढ़
हाँक लगाई है-
ओ! बंद गलियों में रेंगने वालो!
देखो! मेरे गिर्द
बिखरा है मेरे ईश्वर क नूर
जब-जब तुमने
ऊँचे शिखरों के बीच
सतरंगे पुल दिखाए हैं
भूल गई हूँ, वह ज्ञान
जो इन्द्रधनुष की रचना का
रहस्य खोलता है
भूल गया है यह सच
कि शिखरों के आदिम फासले
इन्द्रधनुषों के पुल नहीं फाँदते
जब भी तुम
धरती-आकाश के बीच
अदृश्य रास्तों की बात
कहते हो दोस्त
पाँवों की ज़रूरत भुला
ताकने लगती हूँ
तुम्हारी दृष्टि की दिशा
फिर न जाने सहसा
किस दरार से
सच सेंध लगाता है
तक्षक नाग-सा फूलों में सोया
कोई कृमि
उगलने लगता है
फनफनाता ज़हर
सहसा कठिन लगने लगता है
खालीपन को आकाश कहते रहना
रंग-बिरंगी कतरनों से
आस्था को छलना
उगने लगते हैं हर तरफ
ध्वंसक-हिंसक हाथ
नोच देते हैं देवता के प्रसाद जैसे
लहराती चिन्दियों के बन्दनवार
काली रातों के कीचड़ अंधेरे से
चुन-चुन कर चीथड़े
छुपाती हूँ अपना उघड़ापन
पर हर सीवन से
झाँकने लगता है
रूह का नंगापन