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इन्सान / शैलेन्द्र सिंह दूहन


                        इन्सान
मैं हिन्दू हूँ मगर हिन्दुत्व ने मुझे लीला नहीं है।
मैं देख सकता हूँधर्मों केरक्त सने जबड़े।
वे जबड़े जिन की पूजा लहू से हुई,
नारों से हुई,
ऊंचे-ऊचे झंडों से हुई,
स्वार्थ में बहे आँसुओं की राख से हुई।

मैं हिन्दू हूँ मगर हिन्दुत्व ने मुझे लीला नहीं है।
मैं सुन सकता हूं मंदिर-मस्जिद के दोगले यथार्थ की अंधी धारणाओं पर टंगी,
भोले-भाले लोगों की चीखें।
वे चीखें जिन्हें सुन दिशाओं का दिल दहल गया था,
वे चीखें जिन्हें सुन पंछियों की काकली में गुँजती सुबह,
अपने होने पर रो रही थी,
वे चीखें जिन्हें सुन ईश्वर के अस्तित्व पर फोड़े निकल आए थे,
वे चीखें जिन्हें सुन ज़िन्दगी की महक से भरी आवाज़ की आत्मा मर गयी थी।

मैं हिन्दू हूँ मगर हिन्दुत्व ने मुझे लीला नहीं है।
मैं महसूस कर सकता हूँ मलेच और काफिर जैसे खोकले शब्दों के फूले पेट।
वे पेट जो मेरे भारत को टुकड़ों में तोड़ हजम कर गये,
वे पेट जो जैनब और बूटा सिंह के प्रेम को पचा नहीं पाए,
वे पेट जो मिथकों के ज़हर से फूल युद्ध हग-हग थके नहीं,
वे पेट जो गोली, बम, हिंसा, दहशत, डर, अफवाह सब थे पर पेट नहीं थे।

सच पूछो तो झूठा हूँ मैं, बिल्कुल झूठा।
तुम्हारे धार्मिक ग्रन्थों से भी झूठा,
सूर्य की स्थिरता से भी झूठा,
सत्य के होने से भी झूठा।
क्योंकि...
मैं कुछ भी होने से पहले इंसान हूँ।