इन अंधेरे उजालों के बीच
कुछ तो है
जिसे शायद निलंबित कर दिया है।
रात की स्याही न दिन की रौशनाई,
करें भी तो कहाँ, किससे आशनाई?
लपलपाती जीभ, आँखें चमकती हैं-
लग रहा सारा ज़माना ही क़साई।
है अगर कुछ
साफ होना चाहिए,
जिं़दगी के राग को
क्यों कर विलंबित कर दिया है।
वक़्त का एहसास ही जाता रहा गर,
खु़दी से बेज़ार हो हम जाएँगे मर;
उम्र को क्या काटना, किस काम की वो-
अहमियत देते रहे गो लोग अक्सर;
स्वतः ही हो जाऊँगा बरख्वास्त यारो,
मौत ने बेशर्म इंगित कर दिया है।
अधर में लटके हुए आठों पहर ये,
रास्ते में गाँव हों या हों शहर ये;
अनिर्णय के मकड़जालों में फँसे हम-
सोख लेंगे धार को शायद मगर ये।
स्थगित कब तक रखेंगे काल को हम,
सूर्य-पुत्रों को विवश किसने प्रवाहित कर दिया है?
काटकर संदर्भ सारे नेह-नाते-
आदमी ने आदमी, को ही असंगत कर दिया है।