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इन दिनों / आलोक श्रीवास्तव-२

इन दिनों
तुमसे मिलना मुनासिब नहीं

हर रास्ता तुम्हारे घर तक जाकर
ख़त्म हो जाता है
गलियों में तुम्हारे पैरहन का
उड़ता रंग
चांद में तुम्हारा अक्स
रात के सुनसान सागर पर गूंजता
तुम्हारा नाम
पर
फिर भी तुमसे मिलना मुनासिब नहीं

मालूम नहीं
बीच में सख़्त चट्टानें हैं,
यह रौशनियों का शहर है
या खुद तुम ?