इधर क्या हुआ है कि
अक्सर विडंबनाएँ ही यथार्थ का निर्माण करने लगी हैं
छूते ही रस्सी बन जाती है, सचमुच का साँप
मृग-मरीचिका की बाढ़ में
सिर्फ़ उम्मीदें ही नहीं
समूची सभ्यताएँ डूबी चली जाती हैं
विजित-मर्दित-पर्यटित-पददलित
और यह भी खूब कि
सत्य के ही समुद्र में डूबती है यथार्थ की नाव
अपने को फुलाते-फुलाते
गुब्बारे सा एक दिन धड़ाम से फूटता है साम्राज्य
और विडंबना
कि ठीक उसी वक़्त
साम्राज्य की आँखें देखना चाहती हैं
इतिहास का अंत
इधर तो विडंबनाएँ अक्सर ही...