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इन दीवारों से परे / दिनेश्वर प्रसाद

क्या इन दीवारों से परे
           कोई जंगल है ?
                कोई नदी ?
    कहीं नहीं रुकनेवाली कोई राह
    जो अनजान नगरों तक जाती है
    जहाँ अपनी ही पहचान
    दस-बीस चेहरों में बँट गई है ?

नहीं, इन दीवारों से परे
    कोई जंगल नहीं
    नदी नहीं
    अनजान अपनेपन की आँखों से देखनेवाले
     नगरों तक जाने वाली राह नहीं ।

तो क्या मेरी आवाज़ को प्रतिध्वनियों में काटकर
    हज़ार कर देने वाली हवा भी नहीं ?
    होगी, है हवा

(18 अक्तूबर 1968)