क्या इन दीवारों से परे
कोई जंगल है ?
कोई नदी ?
कहीं नहीं रुकनेवाली कोई राह
जो अनजान नगरों तक जाती है
जहाँ अपनी ही पहचान
दस-बीस चेहरों में बँट गई है ?
नहीं, इन दीवारों से परे
कोई जंगल नहीं
नदी नहीं
अनजान अपनेपन की आँखों से देखनेवाले
नगरों तक जाने वाली राह नहीं ।
तो क्या मेरी आवाज़ को प्रतिध्वनियों में काटकर
हज़ार कर देने वाली हवा भी नहीं ?
होगी, है हवा
(18 अक्तूबर 1968)