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इलाज़ के इंतज़ार में / सुशील मानव


वो जो चल नहीं सकता
उठ नहीं सकता
बैठ नहीं सकता
वो अपने इलाज़ के इंतज़ार में
पड़ा है, एम्स के बाहर, फुटपाथ पर
हफ्तों, महीनों से
कोई बिहार से आया है, कोई बंगाल से
कोई उड़ीसा, झारखंड, गुजरात, असाम और,
जाने देश के किस किस कोने से
बिना पदचाप के चला आता भेंड़िये सा शीत
और लूट ले जाता रोज़
किसी ना किसी के प्राण
एम्स के बाहर, फुटपाथ पे पड़े, बीमारों के ढेर से
घोषित किया ‘इमरजेंसी’ निजी अस्पतालों ने, जिन मामलों को
यहाँ महीने भर बाद की तारीख, मिली है उन्हें
गुज़रता तो होगा, साहेब का कारवाँ
अपने लाव लश्कर के साथ
इधर से
इस सड़क से
क्या सोचता होगा वो
इन बीमारों के ढेर देखकर
क्या वो नज़रें नीची कर लेता होगा ?
क्या वो धिक्कारता होगा
इन राष्ट्रीय बेशर्मों को ?
जो जिंदा हैं, बावजूद इतने अभावों के
क्या वो अट्ठहास करता होगा ?
विश्व के सबसे बड़े जनतंत्र के
इन निरीह जनों को देखकर
अपने रहम-ओ-करम पर !
लकवा लगी व्यवस्था भी कहाँ चल पाती है, अपने से
कदम, दो कदम
जब नींद नहीं आती है गर्म बिस्तर में रात में
तो चले आते हैं पुण्य का जर्जर कम्बल बाँटने
सारे दुरात्मा एम्स के फुटपाथ पर
विस्थापित संवेदनाएं ढूँढ़ रहीं
पलकों के रैन ब​​सेरे
इलाज़ की उम्मीद में विदेशिया बने ये लोग
कितनी उम्मीदों को ले जा पाते हैं
वापस, अपने देश
बीमार तो सब हैं
इलाज़ की ज़रूरत सबको है
वेंटीलेटर पर पड़ी सरकारी नीतियाँ
एंबुलेंस के बिना सड़क पे जच्चा जनने को लाचार व्यवस्था
लाइलाज़ व्यवसायिक इबोला से ग्रस्त प्राइवेट डॉक्टर
और, बेज़ुबान जनता
सब।