इष्ट नाम रघुनाथ को, धरि राखो मन माँहि।
धरनी सबते इष्टता, बैर काहुते नाँहि॥1॥
धरनी इष्ट अनेक हैं, को करि सकै शुमार।
इष्ट सकल जो साधु को, सोई इष्ट हमार॥2॥
इष्ट आपनो राखिये, धरनी शिर पर जानि।
लाभ मिलै जो सर्वदा, कबहिं न आवै हानि॥3॥
इष्ट साधु सर्गुण भले, निर्गुण हरि को नाम।
धरनी इष्ट न कीजिये, एक नारी एक दाम॥4॥
धरनी जन की बीनती, सन्तो! करहु विवेक।
जाके मन ना ”एक“ है, ताके इष्ट अनेक॥5॥
धरनी करनी तो बनी, इष्ट मिलै रघुनाथ।
नातो मूल गँवाय के, जातो छूटे हाथ॥6॥