पाँखें फैलाये मोर में ही नहीं है सौन्दर्य
फन उठाये साँप में भी है
उसका खिलना देख पाती है
वह आँख ही लेकिन
जो उस से - एक पल ही सही
सम्मुख हो जाती है।
आतंक में भी अपना सौन्दर्य होता है
किन्तु तब आंतक बचता नहीं
बिद्ध हो जाता है
एक लय खिलती है
- वही सौन्दर्य का क्षण है
और वह सौन्दर्य मिटता नहीं।
सुनूँ
उस लय का सुनूँ, देखूँ, छू लूँ, हो लूँ
वगरना तुम तो प्रभु हो कर भी मृत्यु हो
इसलिए कायर हो ही,
मैं अमर होने में भी डरता हूँ
इसलिए कायर हूँ
(1976)