दरअसल
उम्मीद के सूरज का नहीं होता
कोई अस्ताचल
पूरब से निकलकर पश्चिम में
डूबती है हमारी सोच
हम पाते हैं एक रोज़
कि सोच कितनी ग़लत थी
दरअसल
सूरज न डूबता था कभी
न निकलता ही था कभी
डूबते निकलते थे हम ही
अपनी सोची हुई दुनिया से
हमारे बच्चे आज भी
स्कूलों में रटते हैं
पूरब-पश्चिम की झूठी
परिभाषाएँ
इसलिए निकला हूँ
कि दिखाऊँ उन्हें
उम्मीद का वह सूरज
बच्चे गढ़ें दिशाओं की
नई परिभाषाएँ
जो शब्दकोषों के बाहर
उनके इंतज़ार में हैं ।