इस अँधेरी रात में
(स्वतंत्र-गीत)
(१)
मर्द हो, मनुष्य हो
महान हो, जवान हो
फिर अँधेरी रात में डर रहे हो क्यों जवान?
डर रहे हो क्यों?
क़दम-क़दम पर चिराग़, चरण-चरण पर प्रदीप
धर रहे हो क्यों महान?
धर रहे हो क्यों?
बिजलियों की रोशनी दिखा रही है राह
काफी पीछे रह गयी है नारियों की आह
बिचारियों को आह
(२)
मेघ गरज विजय-वाणियाँ उचारते
बदलियों के अश्रु स्वागतम् सँवारते
वायु के झकोर पंथ को बुहारते
बिजलियों के दीप आरती उतारते
इस अँधेरी रात में—
गुलामियों की रात में—
दुर्दिनों की रात में—
लाने को ‘प्रभात’ चले जा रहे हो तुम
फ़िक्र मत करो की जले जा रहे हो तुम
या कि आफतों में पले जा रहे हो तुम
जलता रहे दिल-दिमाग सोच-सोच कर
यह की युग-युगों से छले जा रहे हो तुम
(३)
बन के बेदरद किसी ने फूँक दिया है
बन के बेरहम किसी ने लूट लिया है
बन के निर्दयी किसी ने रौंद दिया है
किसी ने मसल दिया है
संसार है तुम्हारा
धर-बार तुम्हारा
यह प्रीति तुम्हारी
सत्कार तुम्हारा
जा रहे उन्हीं को फूँकने को आज तुम
जा रहे उन्हीं को लूटने को आज तुम
जा रहे उन्हीं को रौंदने को आज तुम
कुचलने को आज तुम, मसलने को आज तुम
(४)
आँखों के पानी से—
फलने का नहीं कभी आज़ादियों का बाग़
आँसुओं की बूँदों से—
बुझने की नहीं कभी बर्बादियों की आग
मर्द हो?—तो खून दो
मनुष्य हो?—तो खून दो
महान हो?—तो खून दो
जवान हो?—तो खून दो
पाक देश की ज़मीन
पाक जंग की ज़मीन
बुजदिलों-सा आँसुओं से भर, रहे हो क्यों?
(कुछ तो हिमालय ज़ईफ़ की शरम करो)
शराबियों की तरह पाँव धर रहे हो क्यों?
बुज़दिली से दिल-दिमाग भर रहे हो क्यों?
मर्द हो, मनुष्य हो
महान हो, जवान हो
फिर ‘अँधेरी रात में डर रहे हो क्यों?
जवान! डर रहे हो क्यों?
महान! डर रहे हो क्यों?