अपने सामने खड़ा करो मुझे
मीर !
और मेरी मज्जा को उधेड़ो ।
मेरी साँसों की रहट को
खिंचते हुए देखो मेरे समय को... ।
ख़ामोशी की हद पर हँसते हुए
मैं सिर्फ़ तुम्हें देखता हूँ
मीर !
कटघरे में रोज़ खड़ा होता हूँ
और लौट आता हूँ
बेज़ुबान ज़ोफ़ में !
मुझे अंतरालों का बोध है
घर में जहाँ
जले बर्तनों-सा इंतज़ार करता हूँ
साफ़ होने का ।
बाहर बाज़ार में अनबिकी रचनाओं
के अंबार में
कबाड़ी का ।
या आलोचक का ।
या अपने भीतरी विवेक का !
हर अंतराल मुझे
तुम्हारे सामने उधेड़ता है मीर !
और साँसों की रहट से
नापता है मेरे समय के जल को !
देश के किसी भी सूखे हिस्से में
मेरा जल बहा दो मीर !
और मुझे अपने सामने खड़ा करो !
रचनाकाल : 2002