इस कोलाहल-भरे जगत् में भी एक कोना है जहाँ प्रशान्त नीरवता है।
इस कलुष-भरे जगत् में भी एक जगह एक धूल की मुट्ठी है जो मन्दिर है।
मेरे इस आस्थाहीन नास्तिक हृदय में भी एक स्रोत है जिस से भक्ति ही उमड़ा करती है।
जब मैं तुम्हें 'प्रियतम' कह कर सम्बोधन करता हूँ तब मैं जानता हूँ कि मेरे भी धर्म है।
गुरदासपुर, 14 मई, 1937