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इस पराये शहर में / भगवत रावत

  • इस पराये शहर में / भगवत रावत

कुछ लोग
आहत होकर निकले थे घर से

कहानी सुनाते हुए कहते हैं लोग
कि पानी पीने को
लोटा डोर तक नहीं थी
उनके पास

न कुछ से ज़िन्दगी शुरू की उन्होंने
पराये शहरों में
और तन-मन लगाकर
कमाया धन
धन से मान
मान से नाम

इस तरह वे एक दिन
नगर सेठ हुए
जिए पूरी उम्र
सफलताओं की पताका फहराते हुए
वे गाजे-बाजे के साथ
स्वर्गवासी हुए

इरादों के पक्के
वे कभी लौटकर नहीं गये
अपने घरों की तरफ
घर ही आया उन तक
उन्हे प्रणाम करने
और धन्य हुआ

हर किले का
जिस तरह होता है एक
बड़ा सा दरवाज़ा
जिससे
किला खुलता है

उसी तरह
हर शहर के पास हुआ करता था
कोई न कोई ऐसा ही
बड़ा सा किस्सा
जिससे खुला करती थीं
शहर की
अन्तर्कथाएँ

वे दिन ही कुछ और थे
कहते-कहते लोग
उदास हो जाते हैं
और वक्त से पिटते-पिटते
ऐसी ही किसी न किसी
कहानी की दीवार से
पीठ टिका देते हैं
सैकड़ों सालों से
हज़ारों की तादाद में
होकर बेघरबार
हर साल
निकल पड़ते हैं लोग
शहरों की टूटी-उखड़ी सड़कें
बुलाती हैं उन्हे
पराई रसोईघरों के बरतन
उनकी आस लगाये रहते है
प्लेटों की जूठन
उन्हे पुकारती है
नर्म बिस्तर
बिछने को उनके हाथों का
इंतजार करते हैं

और जब लौटते हैं वे
घरों की तरफ
उन्हे फिर से बसाने
फिर कोई आग लग जाती है
फिर कोई पानी भर जाता है
फिर कोई जानवर
दिन-दहाड़े घुस जाता है
उनके घरों में

कई साल पहले
अपने समय के
तमाम जवान लड़कों की तरह
मैं भी निकला था घर से
झोले में कुछ काग़ज डालकर
पर छोड़िये
इस कहानी में कुछ भी नया नहीं है
आप बतलाइये
आप कब और क्यों आये
इस पराये शहर में।