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इस प्रलयंकर कोलाहल में / अज्ञेय

 इस प्रलयंकर कोलाहल में मूक हो गया क्यों तेरा स्वर?
एक चोट में जान गया मैं- यह जीवन-अणु कितना किंकर!
झुकने दो जीवन के प्यासे इस मेरे अभिमानी मन को-
आओ तो, ओ मेरे अपने, चाहे आज मृत्यु ही बन कर!

1938