इस प्रलयंकर कोलाहल में मूक हो गया क्यों तेरा स्वर? एक चोट में जान गया मैं- यह जीवन-अणु कितना किंकर! झुकने दो जीवन के प्यासे इस मेरे अभिमानी मन को- आओ तो, ओ मेरे अपने, चाहे आज मृत्यु ही बन कर! 1938