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इस महा विश्व में / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

इस महा विश्व में
चलता है यंत्रणा का चक्र-घूर्ण,
होते रहते है ग्रह-तारा चूर्ण।
उत्क्षिप्त स्फुलिंग सब
दिशा विदिशाओं में अस्तित्व की वेदना को
प्रलय दुःख के रेणु जाल में
व्याप्त करने को दौड़ते फिरते हैं प्रचण्ड आवेग से।
पीड़न की यन्त्रशाला में
चेतना के उद्दीप्त प्रांगण में
कहाँ शल्य शूल हो रहे झंकृत,
कहाँ क्षत-रक्त हो रहा उत्सारित ?
मनुष्य की क्षुद्र देह,
यन्त्रणा की शक्ति उसकी कैसी दुःसीम है।
सृष्टि और प्रलय की सभा में
उसके वह्निरस पात्र ने
किसलिए योग दिया विश्व के भैरवी चक्र में,
विधाता की प्रचण्ड मत्तता-
इस देह के मृत् भाण्ड को भरकर
रक्त वर्ण प्रलाप के अश्रु-स्रोत करती क्यों विप्लावित?
प्रतिक्षण अन्तहीन मूल्य दिया उसे
मानव की दुर्जय चेतना ने,
देह-दुःख होमानल में
जिस अर्ध्य की दी आहूति उसने-
ज्योतिष्क की तपस्या में
उसकी क्या तुलना है कहीं ?
ऐसी अपराजित-वीर्य की सम्पदा,
ऐसी निर्भीक सहिष्णुता,
ऐसी उपेक्षा मरण की
ऐसी उसकी जय यात्रा
वह्नि -शय्या रोंदकर पग तले
दुःख सीमान्त की खोज में
नाम हीन ज्वालामय किस तीर्थ के लिए है
साथ-साथ प्रति पथ में प्रति पद में
ऐसा सेवा का उत्स आग्नेय गहृर भेदकर
अनन्त प्रेम का पाथेय?

कलकत्ता
4 नवम्बर, 1940