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इस युग की कथा / सुशान्त सुप्रिय

इस युग की कथा
जब कभी लिखी जाएगी
तो यही कहा जाएगा कि

फूल ढूँढ़ रहे थे ख़ुशबू
शहद मिठास ढूँढ़ रही थी
गुंडे पीछे पड़े थे शरीफ़ लोगों के
नदी प्यासी रह गई थी

पलस्तर-उखड़ी बदरंग दीवारें
ढूँढ़ रही थीं ख़ुशनुमा रंगों को
वृद्धाएँ शिद्दत से ढूँढ़ रही थीं
अपनी देह के किसी कोने में
शायद कहीं बच गए
युवा अंगों को

जिसके पास सब कुछ था
वह भी किसी की याद में
खोया हुआ था
सूर्योदय कब का हो चुका था
किंतु सारा देश सोया हुआ था